कमको मोहनिया - आदिवासियत का अनुभव

 कोयापुनेम 5 दिवसीय प्रशिक्षण के पश्चात कमको मोहनिया में ही आदरणीय डॉ दिग्विजय सिंह मरावी जी के घर जाना हुआ, जहां उनके पिता जी आदरणीय जगत सिंह मरावी जी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, 


उन्होंने मेरे कार्यों को सराहा और आदिवासियत के लिए, समाज के लिए कार्य करते रहने के लिए प्रेरित किए, उनका जीवन और उनके द्वारा कही हर बात प्रेरणास्त्रोत हैं, उनसे आदिवासियत को और बारीकी से जानने को मिला, और प्रकृति के साथ आदिवासियों के पुरखों के समय से जुड़े चीजों को बारीकी से जानने को मिला। प्रकृति के महत्वता को जानने को मिला, आदरणीय जगत सिंह मरावी जी 66 साल के हैं उनके शारीरिक रूप से चलने फिरने और क्रियाकलापों को देखकर लगता नहीं कि वे इस उम्र में भी उतनी ताजगी बनाए हुए हैं। बड़े सादगी और सरल भाषा में बेहद गहरे और महत्वपूर्ण चीजों को समझाए, वे और उनका पूरा परिवार से मिला प्यार मेरे लिए सबसे अहम रहा और उनके जीवन को देखना मेरे लिए नया और प्रेरित करने वाला अनुभव रहा, वे पुरखों के द्वारा बताए मार्गों का बेहद करीब से अनुसरण करते हैं, घर में बगिया फूलों से सजे हैं और उसके साथ साथ सभी फलदार पेड़ जो पहले आदिवासियों के जीवन का अहम थे और अब भी हैं वे पेड़ भी लगा कर रखे हुए हैं, जिनमें साजा, चार, अमरूद, आम, जामुन जैसे और भी पेड़ हैं जो आदिवासी समाज में पूजे जाते हैं और साथ साथ औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं। और उनके अनुसार इसलिए भी पेड़ों को लगाना चाहिए कि जिस लोग भूलते जा रहे हैं वो सभी चीजें उनके आने वाले पीढ़ी को उनके खेतों में ही मिल जाए



दादा जी ये भी बताए कि उनके यहां आदिवासियों के मुख्य भोजन कहे जाने वाला पेज और भाजी प्रतिदिन बनता है, जिसे अब लोग भुला रहे हैं उनको वे संजोकर रखे हुए हैं, भाजी के बगैर वे खाना भी नहीं खाते जो उनके इस उम्र में भी तंदरुस्त और स्वस्थ रहने का राज है, पूरे परिवार के लोग पेज भाजी प्रतिदिन खाते हैं, उन्होंने बताया कि पहले आदिवासी समाज में प्राकृतिक रूप से भोजन करते थे जो बेहद ही पौष्टिक होता था, जिससे आदिवासी लोग रोग से लड़ने में सक्षम थे, बाहरी चीजों का कम ही उपयोग करते थे, और कोदो कुटकी जैसे अनाज मुख्य भोजन हुआ करता था जिसकी मांग आज दुनिया भर में बढ़ रहा है, रोगों से लड़ने में सक्षम इस अनाज को अब अपने आदिवासी समाज भुला रहे हैं यह चिंतनीय हैं।



दादा जी बताए कि वे बाहर से सब्जी वगैरह खरीदते नहीं हैं, और जो भी उन्हें चाहिए होता है वे अपने खेतों में लगाए हुए हैं, तरह तरह के सब्जी, फल, भाजी घर के खेतों से ही मिल जाता है, जो पूर्ण रूप से जैविक होता है, न खाद का उपयोग होता है ना रसायनिक चीजों का जिससे पौष्टिकता बनी रहती हैं, 



मेरा मानना है कि लगभग सभी को यह अपनाना चाहिए कि अपनी जरूरत की चीज खुद ही उगाएं और जैविक रूप से उगाएं।

दादा जी के यहां आज भी चूल्हे से खाना बनता है, और मिट्टी के बर्तनों में बनता है, जो कितना लाभकारी होता है यह हर कोई जानता है, और आजकल मिट्टी के बर्तन से खाना बनाना लगभग सभी जगह खत्म हो गया है लेकिन दादा जी के यहां इसे आज भी संजोकर रखा गया है, क्योंकि प्राकृतिक और प्रकृति से बनी चीजें आपके लिए कभी नुकसान दायक नहीं हो सकता इसे हमारे पूर्वजों से बताया था और अपने जीवन में अपनाया था जिसके बदौलत ही हमारे पूर्वज स्वस्थ और लंबी उम्र जीते थे, 

मिट्टी से बने खाने का स्वाद किसी दूसरे बर्तनों में बने स्वाद से कई गुना ज्यादा होता है, मुझे यह अहसास हुआ कि हम सबको भी पूर्वजों पुरखों के द्वारा अपनाए प्रणाली को बनाएं रखना कितना आवश्यक है, मिट्टी के बर्तन, चूल्हे, प्रकृति पेड़ पौधे, भाजी पेज सभी चीजों को अपनाना और इसे संजोए रखना बहुत महत्वपूर्ण है, 

दादा जी ने अपने घर को दिखाने के साथ साथ और भी बहुत सारी जानकारी दिए जो मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण था, और प्रेरित करने वाला था,

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